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कविता

दूब का गीत

कुमार अनुपम


हमारी अनिच्छाओं में शामिल है आकाश

जबकि हवा से अधिक धरती में हमारा प्रशांत विस्तार

 

सितारे पुकारते हमारे स्वप्नों को चँदोवा तान रुपहला

जबकि नई नई छवि उन्हें बख्शती सतत

हमारी सूफी निगाह

 

तितलियाँ पंख पसार प्रार्थना करतीं

जबकि हमारी कोख का फूल

नहीं मानता स्वयं को ईश्वर खुदमुख्तार

 

लहरों और प्रशस्तियों और इंद्रधनुष और पुरस्कार

की बिसात ही क्या

जबकि क्लोरोफिल पर हमारे

निसार दुनिया का दिल

 

कोई रूमानी आत्मदया न मानें कृपया

किंतु रहा नहीं

अब रहा नहीं रहने का मन

कि अपने ही हरियाले सावन में होकर यूँ अंधी

रहूँ क्या?

 

आप ही बताएँ

भला क्या करूँगी खून खून धरती

कि खरगोश की पुतलियों-सा नहीं रहा सूरज

सद्यःप्रसूता की काया-सी नहीं रही सृष्टि

 

नहीं रहा अब हमारे होने का नैसर्गिक अर्थ

कि अश्वमेध यज्ञों में चाहा ही नहीं था

शामिल होना कभी अच्छत के साथ भी

अब तो नाध दिया जा रहा हमें भी

हत्यारों और लंपटों और मूर्खों की मालाओं, वंदनवारों में

 

किंतु

आँधियाँ प्रचंड और समय के चक्रवात अनगिन

उखाड़ नहीं पाए जिसे जड़ से

हमारे होने का गुरुत्व गौरव : ज्वाला की हरिताभ लौ।


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